umeshshuklaairo
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मै चाह रही हूँ उड़ने को
नभ की सीमा को पार करूँ
पर आशा का सूर्य उगा नहीं
तम ही तम चहुँ ओर दिखे
जीवन के प्रतिपल -प्रतिक्षण में
दबी हुयी इच्छाएं हैं
आये कोई वह ऐसा
जो दूर करे इस संकट को
वह हर्ष उल्लास जो मेरा अपना है
फिर से मुझको एक बार मिले
नहीं विलासिता चाहूँ मैं
पर सम्मान जो मेरा अपना है
वह तो मुझसे ना छीनो
मानव तुम हो मानव मैं भी
वंचित फिर केवल मैं ही क्यूँ ???
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