umeshshuklaairo
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कौन तुम
क्यूँ चले जा रहे
नाम जपते हुए
अनाम का
मानते हुए सर्वव्यापी को
पर है कहाँ वो
किस तन्द्रा में लीन है
है सर्वव्यापी , सर्वज्ञानी
फिर
रोकता क्यूँ नहीं
घमासान को
मानवता के करुण क्रंदन को
सुनता क्यूँ नहीं
नहीं आवश्यकता आज उसकी
जो सुन न सके यथार्थ ध्वनि को
बधिर उस सर्वज्ञानी तक
हे साधक तुम ध्वनि मेरी
संदेशित करना, कहना
आशा का एक दीप संभाले
आज भी विशाल जनसमूह
राह देखता है
फिर से उसे अपना अस्तित्व
बचाने के लिए
मानव की ही भांति
मानव से लड़ना होगा
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