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आज गंगा दशहरा के दिन जब यह सोचता हूँ की मेरा जीवन गंगा जैसा हो को कल्पना मात्र से ही काँप उठता हूँ ….पवित्रता की प्रतिमूर्ति गंगा सदैव अधोगति ही रही …अनंत आकाश से उतरी और सदाशिव की जटाओं में उलझ गयी ….अनुनय विनय के पश्चात् आगे बढ़ी तो गोमुख से हाहाकार मचाती तीव्र गति से सबके पाप मोचन में लग गयी ….गंगा अकेली ही चली थी किन्तु आगे जाकर अलकनंदा और मन्दाकिनी जैसी छोटी छोटी धाराओं ने साथ चलने को कहा तो विशाल हृदय गंगा ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार किया और उनको भी पवित्रता प्रदान की.
गंगा निरंतर बहती रही हृषिकेश ,हरिद्वार ,पार करते ही मैदानी क्षेत्र में जब आई तो इतनी प्रसन्न हुयी की अपने विस्तार को कई कई योजन तक फैलाया और हर योजन में पाप की गठरी को ही धोया ,,,वो पाप जो इंसान करता आया है हर कोई पवित्र होता गया किन्तु गंगा की सुध किसी ने न ली …गंगा के देवत्व की आड़ में उसको खूब लूटा गया उसकी पवित्रता को कलुषित करने में कोई कसर बाकि न रखी.
अपनी ही धुन में मस्त अधोगामी गंगा को क्या मालूम की शिव नगरी काशी पहुँचते पहुँचते वह मार्ग में इतनी विकृत हो जाएगी की स्वयं शिव उसको नहीं पहचान पाएंगे
अपने प्रभु के चरण छू कर ही आनंदित गंगा मैया हरहरा कर चल पड़ती हैं और पापियों क खोजते हुए जो अपने पाप धोने का इंतज़ार कर रहे हैं और पहुच जाती हैं बंगाल प्रान्त तक …और अंततः उनके भाग्य में आता है वह खारा पानी जो किसी के योग्य नहीं ..अपनी जीवन गाथा यदि स्वयं गंगा कह पातीं तो संभवतः वो यही पूछतीं की मैं तो सबके कल्याण के लिए निसृत हुयी ,उद्भूत हुयी और प्रवहित रही मैंने आप सभी के पाप धोये आप केवल मेरे तटों को ही साफ़ कर देते…………………..
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