umeshshuklaairo
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रहनुमा थे जो मेरी पलकों के भी
सर कलम का फरमान सुनाया
उसने ही
शिकवा नहीं की ‘वो’ भूल गयी
हमको
गिला तो है की दिल से
न निकाल पाए हम उसको
आई वो जबसे मेहमां बन के
इस दिल के आशियाँ में
किसी और को शिरकत
का मौका न दिया हमने
खेला जी भर के मेरे
अरमां संग
चाक जिगर करके
रख दिया उसने
आज जाती है
बड़ा एहसां करके
जीने का वायदा
जो लिया उसने
जीने की घड़ी तो
ख़त्म हुयी
सुपुर्द-ए-खाक को
ये लाश अपनी
सम्हाली है हमने
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