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अंतर्मन की पीड़ा

umeshshuklaairo
umeshshuklaairo
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युगों युगों तक चुप मै बैठा
हर काल-खंड में ये ही पाया
मैंने मन से बात करी जब खुलकर
एक तथ्य ही प्रकट में आया
हर मन हर काल में बस ये बोला

चीख रहा है अंतर्मन मेरा
कुछ कहने को आतुर है
व्याकुल है व्याकुलता कुछ कुछ
देख परिस्थिति मेरी
किन्तु निकट जो भी हैं मेरे
दूर बहुत हैं भावों से
भाव मेरे
जो दिख ना पायें
मूक सभी कुछ कह जाएँ
वह सब कुछ जो है
अस्तित्वहीन खुद में
अपर्याप्त,अस्पष्ट धूमिल
सपनो की तरंग
उद्वेगों के ज्वार समेटे
आक्रोशों के लावा संग
फूटेगा कब मन से मेरे
लिए कौतूहल के अनूठे रंग
व्याकुलता किसकी है यह
कचोट रही हर क्षण मुझको
आकुलता किसकी है जो
छोड़े कभी ना मेरा संग
दूर कहीं जाकर छुप जाऊ
बच जाऊ कुछ ऐसे ढंग
फिर करे प्रयत्न कितने अथक
खोज ना पाए मेरे अंग
मन मेरा ये उससे बोले
ले लो मुझको अपने अंक
मिल जाऊ मैं तुमसे ऐसे
जैसे मिलें जमुन औ गंग

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