umeshshuklaairo
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आँखों में जो बदली थी
कल कस कर बरसी थी
बहुत दिनों का सूखापन
मिटा चली वो पगली थी
बहा ले गयी जज्बातों को
उन अरमानों के सैलाबों को
थे मचल रहे दिल के भीतर
छीन रहे हरदम मुस्कानों को
मेरा मन भी कुछ ऐसा पिघला
कमज़ोर बहुत तेरे आगे निकला
पत्थर सा जिसको मन रहा था मैं
मोम का छोटा इक टुकड़ा निकला
अब मेरी बदली उमड़ चली थी
आँखों की मिटटी भीग चुकी थी
मन सोंधा सा महक रहा था
सूखे भावों पर इतना बरसी थी
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