umeshshuklaairo
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प्रतिदिन लिखा गया मुझको
प्रतिदिन पढ़ा गया मुझको
मेरे ही वर्तन में बंध कर
प्रतिदिन तुम खोये मुझको
खोते गए सदा मुझमे ही
और मुझमे ही पाए तुम
आदि अंत में सदा रही मैं
तेरी ही जीवन सहगामी
तुम भूल गए सम्मान मेरा
होता गया अपमान मेरा
तेरे लेखों की गलियों में
ढूँढूं मैं स्वाभिमान मेरा
बनी उपेक्षित रही सदा
जीवन की अमिट कथा
जाने क्या क्या सुना गयी
मेरे मन की वो एक व्यथा
निजता के नियमों को तज
बनी तुम्हारी मैं वो दासी
जिसने न कभी पूछा कैसे
किस विधि कल दोगे फांसी
प्रतिदिन नष्ट किया मुझको
लाँघ मेरी सीमाओं को
जिजीविषा मेरी जो भी थी
नष्ट किया तुमने उसको
क्या यौवन मेरा लौटेगा
तेरी कपट कुटिल चालों से
निस्तेज पड़ी मैं कराह रही
ले दर्द अपने अरमानों से
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