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मैं हिंदी हूँ

umeshshuklaairo
umeshshuklaairo
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फॉर जागरण जंक्शन कांटेस्ट

मैं हिंदी हूँ आज यहाँ कहने आई
अपनी त्रासद एक कहानी
अपनों के ही बीच बनी बेगानी
बरस रहा आँखों से पानी

प्रतिदिन लिखा गया मुझको
प्रतिदिन पढ़ा गया मुझको
मेरे ही वर्तन में बंध कर
प्रतिदिन तुम खोये मुझको

खोते गए सदा मुझमे ही
और मुझमे ही पाए तुम
आदि अंत में सदा रही मैं
तेरी ही जीवन सहगामी

तुम भूल गए सम्मान मेरा
होता गया अपमान मेरा
तेरे लेखों की गलियों में
ढूँढूं मैं स्वाभिमान मेरा

बनी उपेक्षित रही सदा
जीवन की अमिट कथा
जाने क्या क्या सुना गयी
मेरे मन की वो एक व्यथा

निजता के नियमों को तज
बनी तुम्हारी मैं वो दासी
जिसने न कभी पूछा कैसे
किस विधि कल दोगे फांसी

प्रतिदिन नष्ट किया मुझको
लाँघ मेरी सीमाओं को
जिजीविषा मेरी जो भी थी
नष्ट किया तुमने उसको

रोज़ सुन रही प्राचीरों से
उत्थान मेरा होगा कल से
नियम बना देने से क्या
लोग जाग जायेंगे फिर से

देख रहे तुम उन देशों को
पोषण देते निज भाषा को
नहीं कभी स्वीकार किया
दे बलिदान बचाया भाषा को

आज स्वदेश में पड़ी रही
परित्यक्ता सी बनी रही
अपनों के बीच सदा ही
बेगानों सी बनी रही

मैं हिंदी हूँ तुम क्या जानो
दर्द मुझे क्या होता है
भारतेंदु से लेकर अब तो
अज्ञेय मेरा भी रोता है

किस मुख से बोलूं मैं अब
रामचंद्र शुक्ल सा मान कहाँ
निराला के गीतों में धमकाता
वाणी का अभिमान कहाँ

अब भूरे अँगरेज़ ही दिखते हैं
भाषा के गुलाम ही दिखते हैं
धिक्कार तिहारे जेवण पर
मुख से प्रलाप निकलते हैं

संस्कृत की रही पुत्री मैं
देवनागिरी लिपि मेरी
देवों को भी पा जाओ
ऐसी आस रही मेरी

मेरे वर्तन का विन्यास
विज्ञानं पूर्ण ही सदा रहा
वेदों से लेकर देवों तक
यह गर्व सदा ही बना रहा

अ से लेकर ज्ञ तक सब
वर्ण मेरे अति सक्षम हैं
भाव सभी अभिव्यक्त करें
अन्य भाख तो अक्षम हैं

सभी देश मुझ पर शोध करें
मेरे बालक प्रतिरोध करें
मेरी ही जन्मभूमि से
मेरे विकास का विरोध करें

नियमों में उन्नति का सुख देकर
संविधान ने छला मुझे
केवल मौखिक उन्नति देकर
व्यव्हार से परे रखा मुझे

कहने को राजभाषा बन कर
इतराई मैं हर ओर कहीं
पर मन अन्दर ज्ञात मुझे था
पहुँच कहीं भी न पायी अभी

क्या मेरी सुध लेगा कोई
या दिवस एक मना कर ही
इतिश्री कर्तव्यों की होगी
फिर से देखो एक बार वहीँ

बड़े पुरोधाओं ने बोला
मेरा ही व्यव्हार करो
पर भाषा से दूर रहो
मेरा तुम उत्थान करो

किस भूल पड़े तुम उसी पंक में
जिस से वो सब लाये बाहर
फेंक मुझे फिर दिया वहीँ पर
पुनः वहीँ जाने किस मद में

फिर से मेरा व्यव्हार करो
निजता का आह्वान करो
मैं तो तेरी जनम संगिनी
मेरा मत अपमान करो

जाओ जब भी कहीं अन्यत्र
निस्संकोच प्रयोग करो मुझको
मत झाकों तुम यत्र तत्र
मान तेरा होगा सर्वत्र

क्या यौवन मेरा लौटेगा
तेरी कपट कुटिल चालों से
निस्तेज पड़ी मैं कराह रही
ले दर्द अपने अरमानों से

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