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आप सभी को हिंदी दिवस की शुभ कामनाएं
कितना अच्छा होता की हमें ये दिन मनाना न पड़ता, स्वतः ही हिंदी भाषा के प्रयोगकर्ता इसको उन्नति के सोपानों पर चढाते हुए सर्वोच्च शिखर तक ले जाते और हिंदी की कीर्ति पताका पूरे विश्व में लहराती। दुर्भाग्य हमारा की अपने ही देश में अपनी ही भाषा को उसका स्थान दिलाने के लिए संघष करना पड़ता है। यद्यपि भाषा विचारों के सम्प्रेषण का एक माध्यम मात्र है किन्तु यदि वर्तनी और लेखन में एक सारता ही न मिली तो भाषा कैसी ?
संभवतः आप सभी मेरा संकेत समझ गए होंगे ? आज न जाने क्यूँ ग्लानी सी होती है की मै अपनी ही माँ को माँ होने का प्रमाणपत्र देना चाहता हूँ। अनादी काल से संस्कृत के वैदिक वांग्मय के प्रयुक्त सरल स्वरुप को जो की अपभ्रंश, अवहट्ट , ब्रज , अवधी , कोसली, मैथिलि , राजस्थानी , पैशाची, कौरवी, अर्ध मागधी आदि न जाने कितने स्वरूपों से गुजर कर कई परिवर्तनों को समाहित करते हुए अपने वर्तमान स्वरुप में आई हमारी प्यारी हिन्दी। लोग कहते हैं की इतने परिवर्तन हो चुके हैं की इसकी प्रमाणिकता संदेहास्पद है , न जाने फिर कब ये अपना स्वरुप बदल डाले ?
ऐसे सभी महानुभावों से मेरा निवेदन है की यह बात न भूलें की हिंदी में आये हुए सभी परिवर्तन उसकी सरलता और वैज्ञानिकता को बढ़ाते ही हैं न की कही इसका ह्रास करते हैं। संस्कृत की तत्सम शब्दावली को छोड़ कर देशी व देशज शब्दों को अपनी आगत शब्दावली में सम्मिलित करने के पीछे एक मात्र उद्देश्य इसे सार्वभौमिक बनाना था न की संकुचित क्षेत्र में बोली जाने वाली एक बोली के स्तर पर सीमित करना। बोलियों के सोपान को तो ये कबका अपने विकास काल में चढ़ चुकी है अब तो इसका यौवन काल है। किन्तु हमारे देश के अधिकांश महापुरुष इसे राष्ट्रभाषा का स्थान देना ही नहीं चाहते।
प्रयोग के स्तर पर यह एक सर्वाधिक आसान भाषा है किन्तु आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम स्वयं इसका तिरस्कार करते हैं। हम सभी को यह लगता है की हमारी भाषा की तुलना में अंग्रेजी भाषा जो की आज सर्व्भुमिक भाषा बन चुकी है , बेहतर है तथा उसका ही प्रयोग हमें एक बेहतर व्यक्ति बना सकता है अथवा एक बेहतर जीवन तथा समाज में स्थापित कर सकती है। हम कैसे भूल सकते हैं की हमारे पुरोधाओं ने कहा था की हिदी भाषा को ही जब तक प्रयोग में नहीं लाया जायेगा तब तक हमारी उन्नति संभव नहीं
निज भाषा उन्नति अहे
सब उन्नति को मूल
संभवतः चीन, जापान ,रूस अमेरिका आदि विकसित देशों ने इस मन्त्र को मन और पालन कर लिया , अपने ही देश में इस भाषा के लिए दिए गए महामंत्र की उपेक्षा ही नहीं वरन तिरस्कार भी हो रहा है। कुछ चेत गए अभी अगर हम तो संभवतः हमारा भविष्य हमारी भाषा में उज्जवल होगा , अन्यथा सामाजिक, संस्कृतिक , आर्थिक गुलामी की तरह हम भाषिक गुलामी की और भी अग्रसर हो जायेंगे थातः आज जो हमारे ही शास्त्रों एवं ग्रंथों पर शोध कर रहे हैं कल वो इसको ही अपनी भाषा में पढने के लिए विवश के देंगे।
आप सभी को सोचना है की हम किस ओर जा रहे हैं ?
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