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श्वेत रक्त विस्तीर्ण विकृत
भाल कपाल निस्तेज नामित
यौवन शोणित मंद भासित
कर रहा राष्ट्र रक्षित रक्षित
भुज दंड उठाने की सामर्थ्य नहीं
वक्षों पर सजती ढाल नहीं
कहाँ पिलुप्त हुए तुम शूरवीर
मेरे भारत का ये हाल “नहीं ”
फिर से उठे ज्वर शिरा में
शोणित यौवन का संचार लिए
बलि वेदी दर्शन संकल्प लिए
आज मिटा दो अपने अपने
स्वार्थ लोभ मद काम भाव
एक रहे बस आज ह्रदय में
तेरे -मेरे बस राष्ट्र भाव
चढ़ गिरि के उत्तुंग शिखर पर
देख चुके सब सीमाओं को
आज कहाँ ये आ बैठे
जानो अपनी दीर्घाओं को
तेरा ही जय विजय रहा था
वो शंखनाद तेरा ही था
अनादि काल से वर्तमान तक
ओजस्व गान तेरा ही था
तुमने ही तो भरत रूप में
सिंहों के थे दन्त गिने
वीर रूप अवतरित हुआ था
जब जब अरि आन पड़े
व्यर्थ प्रलाप करते हैं कायर
तेरे लौह “जंक” लगने को लेकर
महरौली के स्तम्भ भांति तुम
क्सरित नहीं होने वाले
रण संग्राम निरंतर चलता
आ जाओ जब भी तुम
पुनः उसी भरत रूप में
अरि की सेना संग संग्राम करो
गांडीव उठा अर्जुन बन कर
रक्ष रक्ष साम्राज्य करो
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