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लखनऊ की रेजीडेंसी …..

umeshshuklaairo
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रे इमली के बूढ़े दरख़्त

तेरा फैलाव बताता एक फ़साना

रेजीडेंसी के आँगन खड़ा

चुप चाप देखता पड़ा रहा

हर बरस ही गिरते पत्तों और

अपने बूटों को लुटते देखा

खट्टे पत्तों में बीते दिनों का खट्टापन

हर पतझड़ में झाड़ जाता

कुछ चढ़ती जंगल बेलों का

रस सींच सींच मुझको जगाता

जीवन की गहरी नींद सुलाकर

कई बरस खामोश खड़ा था

आज तुम्हे मैं सुन पाया

जीवन के दुःख को गुन पाया

गुन कर दुःख कि माला को

कर डाल दिया मैनें तेरे

मेरे दुःख के मोती को चुन ले

कैम्पबेल नील हैवलॉक तक

सबका रुतबा देख चुका

कैसे किसने किसको मारा

कितनों का है खून बहा

मेरी जड़ तक जा पहुंचा

जो लहू उसी का गान सुनो

बहुतों ने है खून बहाया

रण छोड़ नहीं भागे जो

ऐसे वीरों का अभिमान सुनो

काल बहुत सा देखा मैंने

चाहत है अब सुख देखूं

बहुत दिनों दुःख तकता आया

इतने गौरव गानों का

अब तुम भी सम्मान करो

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